दुर्गा भाभी की जीवन परिचय।
दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर 1960 को उत्तर प्रदेश के शहजादपुर ग्राम अब कौशांबी जिला में पंडित बांके बिहारी के यहां हुआ था। 10 वर्ष की अल्प आयु में ही इनकी विवाह लाहौर के भगवती चरण बौहरा के साथ हो गया। भगवती चरण बोहरा अंग्रेजों की दास्तान से देश को मुक्त करना चाहते थे और उनकी पत्नी दुर्गा भाभी ने भी इस कार्य में पूरा सहयोग किया। दुर्गा भाभी भले ही भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु की तरह फांसी पर नचदी हो लेकिन वह कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ती रही। अंग्रेजों से लोहा लेने जा रहे देश के सपूतों को टीका लगाकर विजयपथ पर वह भेजती थी।
वह भगत सिंह के साथ ट्रेन यात्रा में जाने के लिए जानी जाती है, जब भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या के बाद वेश बदल लिया था और दुर्गा भाभी ने ही उन्हें अंग्रेजों की पकड़ से दूर जाने में मदद की थी। क्योंकि वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एन संगठन के सदस्य भगवती चरण बौहरा की पत्नी थी इसीलिए अन्य सदस्य उन्हें दुर्गा भाभी कहकर बुलाते थे और बाद में वह इसी नाम से मशहूर हो गई।
दुर्गा भाभी का घर क्रांतिकारियों का आश्रम स्थल था। वह आजादी के संघर्ष में तब आगे आई जब 1927 में लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला लेने के लिए लाहौर में बुलाई गई बैठक की अध्यक्षता उन्होंने की थी। सांडर्स की हत्या के दो दिन बाद राजगुरु ने दुर्गा भाभी से मदद मांगी और वह तैयार हो गई। हर तरफ पुलिस का पहरा था ऐसे में उन्होंने भेष बदलकर भगत सिंह की पत्नी बन उन्हें लाहौर से निकलने में कोलकाता मेल से यात्रा कर मदद की। सूट बूट और हैट पहने हुए भगत सिंह उनके साथ सामान उठा नौकर के रूप में राजगुरु और थोड़ा पीछे अपने बच्चे शैलेंद्र के साथ आई दुर्गा बिल्कुल एक भारतीय पैसे वाले परिवार का अभिनय करते हुए लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे।
जो फर्स्ट क्लास से कंपार्टमेंट की टिकट लेकर भगत सिंह और दुर्गा मियां बीवी की तरह बैठ जाए और सर्वेंट के कंपार्टमेंट में राजगुरु बैठ गए। इसी ट्रेन में चंद्रशेखर आजाद ही थे जो तीर्थ यात्रियों के ग्रुप में शामिल होकर रामायण की चौपाइयां गाते हुए सफर कर रहे थे।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने जाने लगे तो दुर्गा भाभी और सुशील मोहन दुर्गा भाभी की ननद ने हाथ काट कर अपने रक्त से दोनों लोगों को तिलक के लगाकर विदा किया था।
उनके पति भगवती चरण बौहरा ने लार्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंक कर भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव समेटे सभी क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना बनाई और इसके लिए वह रवि नदी के तट पर लाहौर में बम का परीक्षण कर रहे थे।
28 में 1930 की दिन था कि अचानक बम फट गया और भगवती चरण जी शहीद हो गए। दुर्गा भाभी को बड़ा झटका लगा लेकिन वह आजादी के प्रयास में जुटी रही और अंग्रेजों ने उन्हें कुछ साल जेल में भी बंद रखा।
आजादी के बाद उन्होंने अध्यापन के कार्य में खुद को व्यस्त कर लिया और गुमनामी में रहना शुरू कर दिया।
मीडिया सत्ताधीसों और लोगों को दुर्गा भाभी की आखिरी खबर 15 अक्टूबर 1999 के दिन मिली जब गाजियाबाद के एक फ्लैट में उनकी मौत हो गई।
शायद उनके पति के विचारों का ही उन पर प्रभाव था कि पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले ही और इतने साहस के साथ गुजार दी और न जाने कितनों को साथ से जीने को प्रेरणा दी। यह थी बलिदान की कहानी।
सिख, दुर्गावती उर्फ दुर्गा भाभी के जीवन से हमें यही सीख मिलता है कि औरत चाहे तो कुछ भी कर सकती है। उसके पास साहस होना जरूरी है।