माता का सप्तम रूप कालरात्रि की मात्र ध्यान से उस व्यक्ति को कभी अकाल मृत्यु नहीं होती सभी कष्टों का विनाश हो जाता है।

0
श्री दुर्गा पूजा विशेष रूप से प्रतिवर्ष 2 बार चैत्र और आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रथमा से प्रारंभ होकर नवमी तक चलती है। देवी दुर्गा के नव रूपो के पूजा होने के कारण नवदुर्गा तथा नौ तिथियों में पूजन होने से इन्हें नवरात्रि कहा जाता है। चैत्र मास की नवरात्रि वार्षिक नवरात्रि और आश्विन मास के नवरात्रि शारदीय नवरात्र कहलाते हैं।
सातवें दिन माता कालरात्रि का पूजा किया जाता है। मां दुर्गा के सातवें स्वरूप को कालरात्रि कहा जाता है। जिनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही पता चलता है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला है। ताल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है। इस देवी के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड की तरह गोल है। इनकी सांसो में अग्नि निकलती रहती है। इनका स्वरूप भले ही भयंकर हो लेकिन यह हमेशा शुभ फल देने वाली माता है। कहा जाता है कि इस माता का जो ध्यान करता है वह अकाल मृत्यु को कभी प्राप्त नहीं होता। यह माता हमेशा शुभ फल देती है इसलिए वह शुभ करी कहलाए। यह गिरी बाधाओं को भी दूर करती है। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।
माता के मूर्ति स्थापना के कुछ नियम।
भगवती दुर्गा के साधक भव्य स्नान आधी से सुधाकर शुद्ध वस्त्र धारण कर पूजा स्थल को सजाते हैं। इसके लिए मंदिर में या घर में दुर्गा की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए। मूर्ति के दाई और कलर्स चाहिए। कलर्स के सम्मुख मिट्टी व रेत मिलाकर जौ बोना चाहिए। मंडप के पूर्वी कोना में दीपक की स्थापना करनी चाहिए। पूजन में सबसे पहले गणेश जी की पूजा करके फिर सभी देवी देवताओं की पूजा करें। तत्पश्चात जगदंबा का पूजन व पाठ करें।
सप्तशती का पाठ न तो जल्दी-जल्दी करना चाहिए और ना ही बहुत धीरे-धीरे। पाठ करते समय मन में माता की मूर्ति का ध्यान होना चाहिए।
माता के पूजा सामग्री।
जल या गंगाजल पंचामृत, दूध, दही,शहद,शक्कर, रेशमी वस्त्र। उप वस्त्र, नारियल चंदन रोली अक्षत पुष्प तथा पुष्प माला। धूप दीप ऋतु फल पान सुपारी इलायची आसन चौकी पूजा पात्र आरती कलर्स, नव दुर्गे की प्रार्थना करने से पहले मस्तक पर चंदन रोली का टीका लगाना चाहिए।
Tags

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)